
वक़्त लगता है
यकीन को हकीकत बनाने में
गिरे चिनार के बदलते रंग समझने में
दरख़्त के मीनार से सूरज की रोशनी नापने में
वक़्त लगता है
मरते हुए सल्तनत के किस्से, नज़्म बनने में
टूटे हुए मकान को किसी चौक में मूर्ति बनाने में
उससे निकली मजहब की गूंज को भुलाने में
वक़्त लगता है
बुझती हुए नब्ज को ठिकाना दिखाने में
यकीन आने में की ज़मीन के टुकड़ों से यह जिस्म बना है
इसके चाह से परे अपने आप को आएने में बेपाक दिखने में
वक़्त लगता है
किसीको अपना फुरसत देने में
उसकी हंसी में उम्मीद खोज पाने में
गैर को कभी अपना बोलने में तो कभी अपने को गैर बनाने में
वक़्त लगता है
खामोशी, बिना बैचानी से बांट लेने में
रोज़ शाम की टिस को किसी शायरी में शामिल करने में
आवारगी में, रात के अंधेरे में खुद को बार बार पाने में
वक़्त तो लगता है
ज़मीन के एक अंस को, ज़मीन को ही वापस करने में।