अक्सर तुमसे सुना है कि
एक मोड़ पे रुक गई हो तुम
की शायद पुराने घर के दरिचे से कोई झांक के एक बार देख ले
छत पे पड़े पुराने कपड़े ठीक वैसे ही महकते मिले
जैसे पहली बार तुम्हारी स्कूल यूनिफॉर्म से खुशबू आयी थी
दीवार पे लगी दादाजी की कहानियां तुम्हारे किरदार को रोज़ नया बना दे
कॉपी की आखिरी पन्ने में लिखी तुम्हारी पहली कविता
लकड़ी के फर्श को पार कर नोखेले पहाड़ों को पिघला दे
ठीक से देखो उस मोड़ पे वह शाम आज भी रुकी है
जहां बाबा ने तुम्हे लेक के किनारे पहली बार छोड़ा होगा
वह शाम का जुनून याद है तुम्हे ?
जब सामने पहाड़ों ने तालाब के गहराई के सामने
अपनी परछाई तक अलग कर दी थी
तालाब ने अपनी छुपी हुई ज़िद तुम्हे दे दी होगी
दरवाज़े पे लगे छोटे शीशे के टुकड़े में शक्ल और अपनी सी दिखती होगी
शांत भी, बेशरम भी, ज़िद्दी भी, बेहया जुनून भी।
हथेली के चार कोने में दुनिया भी
कभी तुम्हे रोकती भी
कभी तुम अपने सवालों से उसे चोकाती भी
समझने समझाने के खेल में
हथेली बड़ी होती गई और दुनिया चोटी
तुम्हारे घर के आगे से जो सड़क जाती है, वह कहीं रुकती नहीं
वह सीधे फलक तक जाती है जहां सिर्फ तुम हो
वहां ना बाबा है और ना उनकी कहानियां
रुई से बनी वह दुनिया तुम्हारी
रुकी रुकी ख्वाइशों वाली दुनिया तुम्हारी
बाबा ने शायद इसलिए अकेला छोड़ा था
वह कहानी उनकी
किरदार उनके
तुम्हारे किरदार
तुम्हारे लिए उसी मोड़ पे खड़े है
जहां रोज़ दरीचे पे अपने आप को देखती हो
कभी कभी उस मोड़ पे मुझसे मिलना
फलक का एक हिस्सा तुम्हारा, एक मेरा
तब खाली पड़े नीले कैनवस पे
मेरे और तुम्हारे किरदार मिलेंगे
शांत भी, बेशरम भी, ज़िद्दी भी, बेहया जुनून भी।