मृगाश्री

Akriti
2 min readDec 7, 2018

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Wrote this on her birthday

अक्सर तुमसे सुना है कि

एक मोड़ पे रुक गई हो तुम

की शायद पुराने घर के दरिचे से कोई झांक के एक बार देख ले

छत पे पड़े पुराने कपड़े ठीक वैसे ही महकते मिले

जैसे पहली बार तुम्हारी स्कूल यूनिफॉर्म से खुशबू आयी थी

दीवार पे लगी दादाजी की कहानियां तुम्हारे किरदार को रोज़ नया बना दे

कॉपी की आखिरी पन्ने में लिखी तुम्हारी पहली कविता

लकड़ी के फर्श को पार कर नोखेले पहाड़ों को पिघला दे

ठीक से देखो उस मोड़ पे वह शाम आज भी रुकी है

जहां बाबा ने तुम्हे लेक के किनारे पहली बार छोड़ा होगा

वह शाम का जुनून याद है तुम्हे ?

जब सामने पहाड़ों ने तालाब के गहराई के सामने

अपनी परछाई तक अलग कर दी थी

तालाब ने अपनी छुपी हुई ज़िद तुम्हे दे दी होगी

दरवाज़े पे लगे छोटे शीशे के टुकड़े में शक्ल और अपनी सी दिखती होगी

शांत भी, बेशरम भी, ज़िद्दी भी, बेहया जुनून भी।

हथेली के चार कोने में दुनिया भी

कभी तुम्हे रोकती भी

कभी तुम अपने सवालों से उसे चोकाती भी

समझने समझाने के खेल में

हथेली बड़ी होती गई और दुनिया चोटी

तुम्हारे घर के आगे से जो सड़क जाती है, वह कहीं रुकती नहीं

वह सीधे फलक तक जाती है जहां सिर्फ तुम हो

वहां ना बाबा है और ना उनकी कहानियां

रुई से बनी वह दुनिया तुम्हारी

रुकी रुकी ख्वाइशों वाली दुनिया तुम्हारी

बाबा ने शायद इसलिए अकेला छोड़ा था

वह कहानी उनकी

किरदार उनके

तुम्हारे किरदार

तुम्हारे लिए उसी मोड़ पे खड़े है

जहां रोज़ दरीचे पे अपने आप को देखती हो

कभी कभी उस मोड़ पे मुझसे मिलना

फलक का एक हिस्सा तुम्हारा, एक मेरा

तब खाली पड़े नीले कैनवस पे

मेरे और तुम्हारे किरदार मिलेंगे

शांत भी, बेशरम भी, ज़िद्दी भी, बेहया जुनून भी।

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Akriti
Akriti

Written by Akriti

Stuck between visuals and words. Unabashedly emotional and a bit nerdy. Loves films and make films

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